आख़िरकार संसद की स्थाई समिति ने लोकपाल बिल का ड्राफ्ट तैयार कर ही लिया! बिल में प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखे जाने की सिफारिश की गई है! लेकिन ऐसे कंपनियां, मीडिया फर्में और ग़ैर सरकारी संगठनो को लोकपाल के दायरे में लाने की बात कही गई है जिनको सरकार या विदेशों से कम से कम 10 लाख या इससे ज्यादा की डोनेशन मिली हो! ज़ाहिर है इस प्रावधान से अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी के NGOs पर नज़र रखी जा सकेगी! रामलीला मैदान में अन्ना के साथ खड़ा दिखाई दिया मीडिया को भी इसके दायरे में लाने की सिफारिश से लगता है कि सरकार मीडिया को भी सबक सिखाना चाहती है! आम आदमी को इससे कोई आपत्ति नहीं है कि ऐसा क्यों किया जा रहा है! आम आदमी की आपत्ति ये है कि लोकपाल बिल के ड्राफ्ट से ये कहीं से भी नहीं लगता कि ये एक सशक्त और प्रभावशाली लोकपाल बिल है! दरअसल ना तो इस ड्राफ्ट में प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाने की बात कहीं गई है और ना ही न्यायपालिका या सीबीआइ को! समूह सी और डी के कर्मचारियों को भी इस के दायरे में नहीं लाया जाएगा! ज़ाहिर है वर्तमान ड्राफ्ट बेहद कमज़ोर है! इस ड्राफ्ट से केवल ये सन्देश जाता है कि सरकार, भ्रष्टाचारियों के बजाय उन लोगों पर लगाम चाहती है जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग छेड़े हुए हैं! कुल मिलाकर ड्राफ्ट निराशाजनक और दंतहीन है!
नक्सली समर्थक या देशद्रोही !
कट्टर नक्सली 'कोटेश्वर राव' उर्फ़ किशन जी के मारे जाने पर जिस तरह से कुछ तथाकथित सामजिक संगठनों और नेताओ ने उसे फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया, उसके मारे जाने की जाँच की मांग की और उसके हत्यारों को फांसी देने की मांग की है! उससे एक बार फिर ये साबित हो गया है कि हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अपराधियों , नक्सलियों और आतंकवादियों के ना केवल समर्थक हैं बल्कि उनके मानवाधिकारों को लेकर हद से ज्यादा चिंतित भी हैं! इन्हें केवल गुमराह कह देना ही पर्याप्त नहीं! इनके (कु)कर्म इन्हें देशद्रोहियों की श्रेणी में रखते हैं! ये वही लोग हैं जिन्होंने' इनके द्धारा मारे जाने वाले हज़ारों निर्दोष लोगों की हत्या पर कभी अफ़सोस तक भी ज़ाहिर नहीं किया! किशन जी के नेतृत्व में नक्सलियों द्धारा थोक में मारे गए जवानों की इन्होंने कभी निंदा तक नहीं की! लेकिन अब जब किशन जी को भी वही मिला जो वो अब तक लोगों को बाँट रहा था, तब यही नक्सली समर्थक अचानक जैसे नींद से जाग गए हो! और तुरंत सरकार और जवानों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने लगे! फ़र्ज़ी मुठभेड़ का आरोप लगाने लगे! सवाल उठता है कि पिछले दो दशकों से सैकड़ों निर्दोष लोगों और जवानों के क़ातिल देशद्रोही 'किशन जी' के प्रति इतना लगाव, लेकिन अपने देश की ख़ातिर शहीद होने वाले शहीदों के प्रति इनकी बेरुख़ी क्या उचित है! क्या इनका व्यवहार देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आता? देशवासियों को गुमराह करने के आरोप में क्या इन्हें, इनके सही स्थान पर यानि की ज़ेल में नहीं भेज देना चाहिए?
Well I like this post very much! I agree with you fully.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteनक्सलियों के मामले में मीडिया ने कई अंतर्विरोध पैदा किए हैं. नक्सलवाद अच्छी बात नहीं. लेकिन ठेकेदार जब आदिवासियों के घरों को उजाड़ते हैं तो मीडिया और सरकारी एजेंसियाँ कुछ नहीं करतीं. वे ग़रीब लोग जो ठहरे. नक्सलवादियों का नेतृत्व आदिवासियों के हाथों में नहीं है. इस लिए जब कभी उनका कोई शीर्ष नेता काबू आ जाता है, जो आदिवासी नहीं होता, तो हो-हल्ला होता है. आपके उठाए सवाल प्रासंगिक हैं.
ReplyDeleteतर्कपूर्ण सुंदर आलेख,मै आपसे सहमत हूँ,...
ReplyDeleteबढ़िया लेख....आपसे सहमति
ReplyDelete.बहुत बहुत आभार.
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी....ज्ञानवर्धन के लिए आभार.। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत सटीक संतुलित आलेख
ReplyDeleteसुंदर सार्थक बढ़िया आलेख,...
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट में आइये ,,,,
बहुत सुंदर, आलेख
ReplyDelete--"नये साल की खुशी मनाएं"--
prabhavshali aur shashakt prastuti...durbhagya hai desh ka ki desh ki satta deshdrohiyon ke hathon me hai.
ReplyDeleteWelcome to मिश्री की डली ज़िंदगी हो चली